आज फिर एक कविता लिखने बैठा हूँ मैं
आकाश पीले से लाल हो रहा है
दूर पंछी अपने समूह में लौट रहे हैं
इस अट्टालिका के सातवें सतह पर
एक छोटा सा आकाश देखने बैठा हूँ मैं
अब पवन के झोंके महसूस कर रहा हूँ
गगन में तारे छुप से रहे हैं
वो पूरा चाँद भी ओट में हो गया है
चाँदनी को गहराता हुआ बादल
मानो खा सा गया है
शाम के धुँधलके में परछाईं देखने बैठा हूँ मैं
रात कठोर और गहरी काली है
अम्बर ने मानो एक चादर ही डाली है
अटारी पर खड़े हुए प्रकाशहीन आकाश के तले
मानो जीवन रुक सा गया है
इस रात में जीवंतता खोजने लगा हूँ मैं
कब रात गयी और कब सुबह हुई
भोर के तारे ने एक नया दृश्य दिखाया
अम्बर की चादर सिमट गयी है
सुरमई छटा पूर्व दिशा में दिख रही है
सूर्या की पहली किरण ने सोते फूलों को जगाया
धरा पर जीवन लौटते देख रहा हूँ मैं
आज फिर एक कविता लिखने बैठा हूँ मैं।