निश्चय
स्वप्न अभी भग्न हुआ है
निशा का तम अभी बिखरा हुआ है।
सूझती नहीं है कोई राह
इस अंधकार की भी नहीं कोई थाह।
दूर एक दीपक टिमटिमाता है
घोर अंधेरे में विश्वास दिलाता है।
दिवा का प्रकाश अब दूर नहीं
मंज़िल है पास यहीं कहीं।
स्वप्न तो स्वप्न है भग्न ही होगा
निराकार था अब साकार होगा।
स्वप्न को स्वप्न ही नहीं रहना है
भग्न कर उसे एक स्वरूप देना है।
भावनाएँ
भावनाओं से भरे नेत्र
उन्हें शब्द देने को आतुर ये थरथराते होंठ ।
क्या तुम रोक रही हो उसे
जो अनायास ही छलक आया है इन नयनों से।
या उस आह को
जो बिना पूँछे निकल पड़ी है इन अधरों से।
बह जाने दो इन्हें
आँखी मूल्य कहाँ है इन भावनाओं का।
सूखी आँखे ही जीवंत दिखती हैं
खिले होंठ ही लुभाते हैं।
भरी आँखें व थरथराते होंठ
देते हैं बस अवसाद के गहरे क्षण।
बह जाने दो इन्हें मत बहो इनमें
मूल्यहीन हैं ये भावनायें।
मँझदार
एक तम्मना थी जीवन में
कुछ बन कर दिखलाऊँगा।
भीड़ में वजूद ना खोकर
अलग ही पहचाना जाऊँगा।
पर भविष्य है विशाल
समेटे अथाह सागर।
पार करनी है लम्बी दूरी
अनिश्चितता का सदा है डर।
कि भँवर कोई ऐसा आए
बीच में ही किश्ती रह जाए।
मैं बस देखता ही रहूँ
मंज़िल पास आकर भी छिटक जाए।
तलाश
ज़िंदगी के सफ़र में हमसफ़र की तलाश है
रहीं तो बहुत मिलीं पर मंज़िल की तलाश है।
वह कौन सी रह है जो
मंज़िल तक ले जाएगी।
दूर करने अंधेरे को
वह सभा कब आएगी।
राहें तो सभी मंज़िल तक ले जाती हैं, दिए की रोशनी भी अंधेरे को भागती है
मुझे मंज़िल दिखाने वाले सूरज की तलाश है।
वह कौन था जो साथ चला था
अब आगे निकल गया।
वह कौन था जो साथ चला था
अब ठोकर खा कर गिर गया।
जो साथ चला था और अब भी साथ है
मुझे उस हमसफ़र की तलाश है।
आकाश
नीला आकाश सो रहा है बेख़बर
और नीचे धरती पर
कुछ आत्माएँ जन्म ले रही हैं
कुछ सांसें दम भी तोड़ रही हैं
पर आकाश सोता है बेख़बर।
क्या दिन का उजाला भी नहीं दिखा पता उसे,
अपना बोझ ढोती मृत आत्माएँ
या ख़ुद से लड़ती बेजान सांसें।
इस आकाश और धरती के बीच कुछ है
यह वायुमंडल, अदृश्य और पारदर्शी।
पर यह भी अब कलुषित है
नहीं भेद पाती इसे सूर्या की आभा
नहीं शीतल करती इसे चाँदनी भी।
तभी तो आकाश अब भी सोता बेख़बर
तब भी, अब भी और हमेशा।
मैं
रिमझिम बरखा बरस रही है
आकाश धूल कर साफ़ हुआ जाता है।
पक्षियों का कलरव बढ़ रहा है
सूर्या का तेज़ मंद हुआ जाता है।
मस्त पवन वृक्षों को झुला रही है
हृदय प्रसन्न पुलकित हुआ जाता है।
सावन का आगमन है और पपिहे की पुकार
प्रिया से मिलने को चित्त हुआ जाता है।
वर्षा की बूँदे हैं ये नहीं स्वेद के कण
प्रिया का चीर और तन एक हुआ जाता है।
बँधे केश खुल कर लहरा रहे हैं
और मेरा मन विश्वामित्र हुआ जाता है।
आदि युग
कैसा था वो आदि युग
जब बिजली धिस सिर्फ़ आकाश में
लोग तारों तले चंद्रमा की रोशनी टोहते थे
कैसा था वो आदि युग
जब घर मिट्टी से बनते थे
भरी दोपहर के तपते सूरज से
बचाती धिस घने पेड़ों की छांव।
कैसा था वो आदि युग
जब दूर दृष्टि के अंत तक थी हरियाली
शीतल लगते थे पवन की झोंके और
ठंडक बरसते थे काले बादल।
कैसा था वो आदि युग
जब हवा थी महकती चंचल चितवन
पर्वत शिकार रहते थे अजेय, अरण्य दुर्गम
सागर भी था अथाह और अंतहीन।
कैसा था वो आदि युग
जब चंद्रा सिर्फ़ था कहानियों
बादलों पार दुनिया बस्ती धिस कल्पनाओं में
ब्रह्मांड भी था आगम अगोचर।
कैसा था वो आदि युग
जब विज्ञान नहीं था उन्नत
जीवन की परिभाषा और लक्षय थे सीधे
क्यों नहीं वह युग आ जाता दोबारा
हो जाए सब वैसा ही जैसा चाहे मन हमारा।
हम नौजवान
दुनिया की हमें परवाह नहीं
दुनिया से हम बेग़ाने भी नहीं।
पुरानी मंज़िलो की हमें आस है
इक नए रास्ते की भी तलाश है।
जलती शमा की परवाने हैं
बुनियादी ज़रूरतों को भी पहचानते हैं।
हम नए युग के जोशिले नौजवान हैं
भूत से निकल कर वर्तमान में भविष्य तलाशते है।
छोटी कविताएँ
1.
देवी
यह पर्वतमाला कितनी उच्शृंखल
यह हरियाली भी करती मन को चंचल।
देवी बैठी है गिरी की चोटी पर
मन चाहे पहुँचू वहाँ मैं उड़कर।
रह कठिन है, दुर्गम, पर नहीं असम्भव
उठाकर कष्ट ही मिलता है वैभव।
पुरुषार्थ से कमाया धन ही अर्जन है
सिर्फ़ उड़ने की चाह तो मानसिक पतन है।
2. क्षण
पल पल गिनते समय निकल गया
पल पल गिनते कारवाँ गुज़र गया।
हम थे जहाँ वहीं अब भी हैं
पल पल गिनते मौक़ा ही निकल गया।
३
ज़माने भर का गम हमारे साथ है
फिर भी मुस्कुराते हैं गम पीते जाते हैं।
आख़िर यूँ ही पीने से तो
गम हल्के होते जाते हैं।
४
ऐ दुनिया वालों हमें शिकता नहीं तुमसे
हमें तो सताया है दुनिया बनाने वाले ने।
५
सोचो तो साथ क्या लाए थे
सोचो तो साथ क्या जाएगा।
क्या वजूद है हमारा
यहाँ किया यहीं रह जाएगा।