मेरी खिड़की से दिखता है
मुझे थोड़ा सा आकाश।
कभी सूरज की किरणें झांकती हैं
तो कभी चंद्रमा का प्रकाश।
सुबह होने पर पंछियों की चहचहाट सुनता हूँ
तो कभी साँझ ढले मोटरों की आहट।
बारिश की बूँदें भी अक्सर छन आती हैं
तो कभी तीखी धूप झुंझला जाती है।
यह झरोखा नित नए रूप दिखाता है
मानो एक नया चलचित्र सामने आया है।
कभी भोर का सूरज बादलों की आग़ोश
में सिमट कर छुप सा जाता है।
कभी पूनम का चांद खुल कर
अपनी रोशनी में मुझे भिगो जाता है।
यह छोटा से एक झरोखा
एक नयी ज़िंदगी एक नए रूप को
कुछ पल के लिए मेरे मन में
अंकित कर जाता है।
ऐसा ही एक झरोखा
मेरे अंतःकरण में भी है।
यह मुझे नित नए आयामों से
मेरा परिचय कराता है।
यह झरोखा मुझे स्वतंत्र करता है
मुझे आभास कराता है
मैं बंदी नहीं हूँ अपनी आशाओं का
मुझे दिखता है थोड़ा सा आकाश।
बस पंख फैलाने हैं और
उड़ना है इस झरोखे के बाहर।